पहलु वक़्त के
जब सुबह ढलती है ,
अँधेरा हो जाता है |
आशाएं डुब जाती है ,
निराशाएं घिर आती है |
आसमान से सूरज कहीं खो जाता है |
दिलो-दिमाग में द्वंद्व शुरू हो जाता है |
स्वघटित घटनाओं का मंजर
उभर आता है |
जब सुबह ढलती है ,
अँधेरा हो जाता है |
एक रौशनी दिखती है
इस अँधेरे को चीरने को ,
विवेक से काम लेने पर दिमाग भी
साथ देता है
इस परिस्थिति से निकलने को ,
और फिर वो सुबह रूपी आशा
नज़र आती है
दूर चमकने को ,
मन कह उढ़ता है
मंजिल तक पहुँचने को ,
फिर हिम्मत कर निकल पड़ते है ,
मंजिल मिल जाती है |
सुबह हो जाती है ,
शाम चली जाती है |
(I wrote this when I was in 8th class and this is my first poem.)