Thursday, November 25, 2010

"लिखने को "

लिखने को मैं बेवफाई लिख दूँ 
पर प्यार की तोहमत मुझे जीने नहीं देगी |

तेरे चेहरे की कशिश में, साँसें मैं अपनी भूल जाऊँ
पर सोच एक ऐसी मुझे साँस लेने नहीं देगी |

लिखने को मैं प्यार का तराना लिख दूँ   
पर यादें तेरी, गीत मुझे गाने नहीं देगी |   

तेरी फूलों सी काया के साये में, सपनो की जन्नत घूम आऊँ
पर आहट मुरझाये फूलों की मुझे नींद लेने नहीं देगी |

लिखने को तेरी-मेरी दास्ताँ लिख दूँ 
पर सोच तेरी बेवफाई की, मुझे लिखने नहीं देगी |     

Thursday, October 28, 2010

"शाम" 
 


धुंधलाई सी शाम
यादों के आँचल में,
कुछ यूँ गुनगुनाती है |

की जैसे सपने कई अधूरे
इक उड़न-खटोला लेकर
मुझसे बतियाने आते है |

दिल का दर्द
भरमाई आँखों के
अश्क बयां करते हैं |

 कसी बेड़ियों को 
तोड़ने को दिल मचलता है,
देख हालत ऐसे
तकदीर भी शरमाती है |

धुंधलाई सी शाम
यादों के आँचल में,
कुछ यूँ गुनगुनाती है |
अकेली भीड़ में यादों के साथ !
 

     अजीब सा मौसम था, जैसे गम की चद्दर के किसी कोने में खुशियों के बूटे कसीदे गए थे, जैसे धुप को बादलों ने अपने आप में समेट रखा था | 
     मेरे घर की छत पर मेला सा लगा था | इतने सारे अनजाने चेहरे जैसे दुनियाँ की इस उधेड़बुन में खुशियाँ टटोल रहे थे | आवाजें हवाओं की चीत्कारें बनी बैठी थी |
     पर मैं इन सब से अनजान किसी का इंतजार कर रहा था |
     ना तो उसे मैंने बुलाया था और ना ही किसी ने मुझे उसके आने की इत्त्लाह की थी, पर फिर भी ना जाने मन को क्यों विश्वास सा हो गया था की आज वो आने वाली है |
   
     ख्यालों में खोये मन को यथार्थ का पता चला जब किसी जानी पहचानी आवाज ने रूह को सहलाया | एक वो जानी पहचानी आवाज और फिर बस सन्नाटे में सिसकियाँ.....
     शायद मैं भी मीरा बन गया था जो उसकी पहली झलक को मैंने अपने आँसुओं के कारण खो दिया | जब होश संभाला तो वो मेरा हाथ थामे खड़ी थी और मैं बस उसके हाथों को चूमे जा रहा था |
    
     ऐसे लग रहा था जैसे प्रकृति बहुत समय बाद अपनी सुन्दरता को निहार मानो नाज कर रही  हो, जैसे सुखी पड़ी नदी में अरसों बाद पानी आया था और वो खुशियों में हिलोरे खा रही थी | अन्दर बंद पड़ा ज्वालामुखी जैसे फूटने के कगार पर था और ना जाने कितनी भावनाएं इस ज्वार में जल कर राख हो जाने वाली थी |  
     उसके आने से पहले मन में घर कर गए शिकवा शिकायतें भी बेमानी से लग रहे थे |
     वो थी, मैं था और जैसे सारा जहां था | 
     मुझे किसी उपमा की जरुरत नहीं थी वहीं मेरा नाम, मेरी पहचान थी |
    
     मैंने अपने आप को आँसुओं से भीगे कंधे पर पाया पर अभी भी किसी लफ्ज की कोई गुंजाईश नहीं थी | 
    एक आदमी होकर इतना सशक्त आज से पहले में कभी नहीं था और ना ही इससे पहले की कमजोरी कभी हुई थी बस अश्क ही प्रतिभाषी बन बैठे थे |
     हम दोनों दुनिया की भीड़ से दूर कहीं किसी कोने में जाने को , एक लम्बी और थका देने वाली उड़ान भरने को तत्पर थे | मैं और उसकी वो प्यार भरी गोद , आज तो जैसे वो हो सब कुछ थी मेरे लिए, मेरा प्यार, मेरी माँ .....
    
     फिर अचानक से वो जाने लगी और वो अनजानी गहराइयों में कूद गयी, मैं सन्न रह गया | 
     वो सदियों से कायम इस रिश्ते से दूर जा रही थी, रेशम कच्चा पड़ गया था | वो जा रही थी और मैं हिम्मत नहीं कर पाया की उसे रोकने के लिए आवाज लगाऊँ | 
     दूरियाँ बढ रही थी....
     जब उसने वो रास्ता चुना तो लगा की कितना आसान है इतनी सी ऊँचाई से कूदना पर जब खुद की बारी आई तो वो ऊँचाई असीम प्रतीत होने लगी | लगा जैसे पलक झपकते ही दूरियाँ बदल गयी थी|
     दूरियाँ अनंत पा चुकी थी !
   
     और फिर से मैं भीड़ भरी छत पर अकेला रह गया था | 
     बादल अब भी वैसे ही थे पर अब जैसे लगता था जबरदस्ती धुप को रोके हुए है | 

Saturday, April 24, 2010


पहलु वक़्त के
   
   जब सुबह ढलती है  ,
अँधेरा हो जाता है |
आशाएं डुब जाती है ,
निराशाएं घिर आती है |
आसमान  से सूरज कहीं खो जाता है |  
दिलो-दिमाग में द्वंद्व शुरू हो जाता है |
स्वघटित घटनाओं का मंजर 
उभर आता है |
जब सुबह ढलती है  ,
अँधेरा हो जाता है |


एक रौशनी दिखती है
इस अँधेरे को चीरने को ,
विवेक से काम लेने पर दिमाग भी 
साथ देता है
इस परिस्थिति से निकलने को ,
और फिर वो सुबह रूपी आशा 
नज़र आती है
दूर चमकने को ,
मन कह उढ़ता है 
मंजिल तक पहुँचने को ,
फिर हिम्मत कर निकल पड़ते है ,
मंजिल मिल जाती है |
सुबह हो जाती है , 
शाम चली जाती है |


(I wrote this when I was in 8th class and this is my first poem.)