Monday, February 6, 2012

      खामोशी
       रात के दो बज रहे थे और सर्दी बहुत तेज हो गयी थी। इस वक्त प्लेटफार्म पर उसके और मेरे सिवा दूसरा कोई नहीं था। यह एक छोटे से कस्बे फलोदी का छोटा सा प्लेटफार्म था, ईमारत के नाम पर स्टेशन मास्टर का एक छोटा सा कमरा और पक्की इंटों से बना प्लेटफार्म था। अक्सर एक चाय वाला अपना ठेला लगाता था पर वो भी साँझ ढले चला जाता था। इस पहर स्टेशन बहुत  बेरौनक, सुनसान सा था। प्लेटफार्म पर एक ट्यूब-लाइट जल रही थी, इसलिए ज्यादातर हिस्से में अँधेरा था। पूरे प्लेटफार्म पर बस दो ही बेंचें थी, एक पर वो अकेली, दूसरी पर मैं और बीच में ट्यूब-लाइट, कुछ अजीब सा रिश्ता हो गया था हम तीनों के बीच। 
       स्वाभाविकता से परे न जाते हुए मैं उसे कनखियों से निहारने लगा, बिखरे हुए बाल, बैचैन आँखें और बेहद खुबसूरत चेहरा । सर्दी से बचने के लिए उसने गर्म शाल ओढ राखी थी और उस शाल के निचे नारंगी रंग की कीमती  साड़ी । मैंने भी सर्दी से बचने के लिए अपने कोट की कॉलर खड़ी कर ली थी लेकिन शर्ट-पेंट सूती होने के कारण बहुत ठण्ड लग रही थी । वो भी थोड़ी-थोड़ी देर में मेरी तरफ देख लेती, आखिर सुनसान रात में दो अजनबियों का रिश्ता ही कुछ ऐसा हो जाता है। हालाँकि वो मेरे लिए अजनबी और में उसके लिए पर अभी तो दोनों एक ही प्लेटफार्म पर थे, मंजिल की भी कोई चिंता नहीं क्योंकि हो सकता हैं गाड़ी सुबह ही आये। अभी-अभी दिल्ली मेल बिना रुके दनदनाते हुए चली गयी और इससे पहले भी कई गाड़ियाँ यूँ ही जा चुकी थी, अभी एक और आने वाली थी पर वो भी यूँ ही निकल जानी थी , तेज चलने वाली गाड़ियाँ अक्सर छोटे स्टेशनों पर नहीं रुका करती। 
       कुछ ऐसा ही मामला जिन्दगी का भी है। हम अपना रास्ता जल्दी तय करने के लिए ना जाने कितने अपनों को पीछे छोड़ देते है, मैं भी आज बहुत कुछ पीछे छोड़ आया था। खैर जो हुआ सो हुआ, वो सब सोचने का तो वक्त नहीं था। अभी तो दिमाग में बस उसके बारे में विचार आ रहे थे वो भी अधलेटी सी शायद कुछ सोच रही थी, मुमकिन है वो भी मेरे बारे में ही सोच रही थी। लेकिन ये कौन थी, कहाँ से आ रही थी, कहाँ जाने वाली थी और ऐसे ही बहुत सारे सवाल मेरे मन को बैचैन कर रहे थे । कई बार सोचा की जाकर पूछ लेता हूँ पर फिर यही सोच कर रुक गया की कहीं वो मुझे गलत ना समझ बैठे । काफी समय बीत गया और मैं अपनी बैंच पर अधलेटी मुद्रा में सिगरेट सुलगा रहा था और मेरा पूरा रुख पूरी तरह उसकी और था , शायद इसी से असहज हो उसने अपने हैण्ड-बैग से कोई किताब निकाली और पढने की कोशिश करने लगी। वो बीच-बीच में मुझे भी देख लेती थी तो लगा शायद वो मुझे कोई बदमाश समझ रही थी और सहम गयी थी। कुसूर उसका भी नहीं, मेरी हालत ही कुछ ऐसी थी, खैर फटे हुए कमीज को तो कोट ढके हुए था। 
       इसी उधेड़बुन में सिगरेट कब खत्म हुई पता ही नहीं चला, अंतिम कश लेकर सिगरेट जोर से उछालते हुए मैंने अपने आप से कहा इस तरह तो सुबह हो जाएगी, कम से कम नाम तो पता कर ही लूँ। मैं बेंच से उठ खड़ा हुआ और छोटे छोटे कदमो से उसकी तरफ बढ़ने लगा पर जैसे ही उसके करीब से गुजरा तो कदम खुद-ब-खुद तेज हो गए और मैं उसके पास से आगे निकल गया। वो शायद घबरा गयी थी मुझे यूँ आते देख पर उसे नहीं पता था की मैं खुद भी कितना घबरा रहा था। उसका चेहरा देख तो बात करने की कशिश और भी बढ़ गयी थी। मैं अपने आप पर झलाने लगा और तय किया की वापस जाते वक्त जरुर उससे बात करूँगा। लेकिन फिर वही बात, उसके करीब जाते ही दिल की धडकनों के साथ कदम भी तेज हो गए ।
       सुनिए......
एक मीठी सी आवाज़ ने जैसे पूरे बदन में सिहरन सी पैदा कर दी थी और मैंने बिना सोचे अचानक से पीछे को देखा।
       आप कहाँ जा रहे हो? 
       जी मैं...! मैं तो....
मैं कुछ घबरा सा गया और लफ्ज जुबान से न निकल पाए। वो मुस्कुराई, शायद अपने ही डर को मारने की कोशिश कर रही थी या शायद मेरे व्यव्हार ने उसकी चिंता को खत्म कर दिया था, वो बोली...
       मेरा मतलब किस शहर को जा रहे हो?
मैं सोच में पड गया की किस शहर को जा रहा था, दरअसल इसका तो मुझे भी पता नहीं था सो मैंने उससे यही सवाल दोहरा दिया, और वो भी शायद अपने गंतव्य को लेकर सुनिश्चित नहीं थी। मैंने आश्चर्य से उसकी और देखा और मन ही मन खुश हुआ की शायद हमारी मंजिल एक ही हो जाये।
       आप अकेले है?
उसने भी जवाब को गोल कर दिया, और कहने लगी...
       आप आकर यही बैठ जायिए ना... अकेले रात काटना तो बहुत मुश्किल लग रहा है।
इतना कहना था की मैंने अपने अटेची उठाई और उसके पास आकर बैठ गया, मैंने तो ये तक तय कर लिया की जहाँ वो जाएगी वही चले चलूँगा। मैं सपनो की दुनिया में खो गया और लगा की एक कश्ती में सवार हम दोनों कही जा रहे थे और मैं उससे पूछा किस साहिल की और...मैं कुछ ज्यादा ही जोर से बोल गया था तो वो चौंक उठी।
       जी...
       माफ़ कीजिये मैं सपना देख रहा था।
       लेकिन आप सोये कब थे?
       जी, कुछ सपने खुली आँखों से भी देखे जाते हैं।
वो मुस्कुराई और इधर-उधर देखने लगी। मैंने अचानक से मौके का फायदा उढा पूछा
       आपने अपने बारे में कुछ बताया नहीं, यहीं की कहाँ से हो, कहाँ जा रही हो ?
कुछ देर सोचने के बाद, कहती है...
       अब आपसे भी क्या ही छुपाना, आज मेरी शादी का दिन था। मेरे माँ-बाप मेरी शादी एक बहुत ही गरीब घर में करवा रहे थे, कहते थे लड़का बहुत योग्य है, पर तुम ही बताओं हमेशा ऐसो-आराम में पली बढ़ी हूँ, उस घर में भला कैसे रहती।
       आपने अपना नाम नहीं बताया?
       वर्षा...
वर्षा! नाम सुनते ही मैं चौंक सा गया और अनायास ही पूछ बैठा...
       क्या आप सुरेन्द्र जी की लड़की है?
       जी हाँ... लेकिन आप कैसे...?
       जी, मैं प्रेम यादव हूँ जिससे आप की शादी होने वाली थी। मैंने इसलिए घर छोड़ा की मेरी शादी एक अमीर घर की लड़की के साथ हो रही थी और.....
मेरा वाक्य खत्म होता उससे पहले ही एक और एक्सप्रेस सीटियाँ बजाती, शोर करती बिना रुके पास से गुजर गयी।
पीछे रह गए वर्षा और प्रेम और रह गयी खामोशी। वर्षा अपनी मंजिल की तलाश में और मैं अपनी...