शायरियाँ
v डर हैं हमें की काफिला उनके साथ जायेगा,
आखिर हर मोड़ पर रुक कर इंतज़ार करना हमारी फितरत जो हो गयी हैं |
v
क्यूँ भावों के आँचल में यूँ उलझी सी है जिन्दगी,
क्यूँ बार-बार करवटें बदल जागती-सोती सी है जिन्दगी,
ख्वाहिश है एक बार धवल राहें देखने की,
क्यूँ अपने ही फलसफों में आखिर लिपटी सी है जिन्दगी |
v वक्त
बेवक्त वो आन्हें...
लगता रहा की कोई ख्वाहिस अधूरी
है रही
अरसों बाद
हुए हमसे वो कुछ ऐसे मुखातिब
की दीदार उनका
करने को आँखें सलामत
ना रही ।
v
कोयले से हुए इस बदन को एक टिक्का शहादत का लगा देना,
और अगर अन्दर से खोखला ना निकलूं तो चूल्हे अपने जला लेना |
v मजार थी
खुशियों की
फरियादों के
लिए
विश्वास से
जुडी बुनियादों के लिए
फिर क्योँ
इक दिन
वो रोया
और कहता
गया
तुझ सा
बेवफा मैंने
आज तलक
ना देखा
|
v
कहने को दिल में तमनाएं बेसुमार है
तुमसे मिलने को माँगी मन्नते हजार है
पर खुदा की रहमी तो देखो,
बनायीं ये बीच में हंसती सी दरार है |
v कल खुशियों से, हँसी ठहाकों से
मेरी मुलाकात थी,
पर आज
जैसे यथार्थ को भी
धरातल सिमट
गया हैं
|
मैं मिर्ज़ा गालिब की शायरियों से बहुत प्रभावित रहा हूँ तो दो शायरियां गालिब के नाम :-
v दुनियाँ गम-ए-ईमान का प्याला पीती है,
झूठी शोहरत और सिधांत का प्याला पीती है,
फिर आये कोई गालिब और बताएं,
क्या खा कर मरेगी ये दुनियाँ
v
कहता कोई गालिब कहाँ है जमाना
तोहमत हे नज़ारे पर कहाँ
है फसाना
वक़्त तो ढलता सूरज ही रहा
फिर भी मुश्कियों में आबाद है आशियाना|