Wednesday, May 23, 2012

क्यूँ ?


क्यूँ तुझे दूँ मै राग अपनी?
क्यूँ तुझे झूले पे बिठाऊँ ?
भीगे चाहे सर्द  के मौसम में,
क्यूँ तेरी और कदम बढाऊँ?

क्यूँ सलामती की खातिर तेरी ,
सर मजारों पे झुकाऊँ ?
जो अछूत माने तू मुझे,
क्यूँ तुझे पानी मै पिलाऊँ?

क्यूँ परवाह करूँ तेरी,
ना  इस सच  को झुठ्लाऊँ?
आजमाते मुद्दतें गुजरी,
क्यूँ तुझे फिर आजमाऊँ?

क्यूँ दर्द  को रोकूँ तुझसे?
क्यूँ खुद दर्द  में भीग जाऊँ?
जो प्यार तुझे ना मुझसे,
क्यूँ तुझपे मै प्यार लुटाऊँ?

Tuesday, May 22, 2012


शायरियाँ

v डर हैं हमें की काफिला उनके साथ जायेगा,
आखिर हर मोड़ पर रुक कर इंतज़ार करना हमारी फितरत जो हो गयी हैं |

v क्यूँ  भावों के आँचल में यूँ उलझी सी है जिन्दगी,
क्यूँ बार-बार करवटें बदल जागती-सोती सी है जिन्दगी,
ख्वाहिश है एक बार धवल राहें देखने की,
क्यूँ अपने ही फलसफों में आखिर लिपटी सी है जिन्दगी |

v वक्त बेवक्त वो आन्हें...
लगता रहा की कोई ख्वाहिस अधूरी है रही 
अरसों बाद हुए हमसे वो कुछ ऐसे मुखातिब
की दीदार उनका करने को आँखें सलामत ना रही 


v कोयले से हुए इस बदन को एक टिक्का शहादत का लगा देना,
और अगर अन्दर से खोखला ना निकलूं तो चूल्हे अपने जला लेना |


v मजार थी खुशियों की फरियादों के लिए
विश्वास से जुडी बुनियादों के लिए 
फिर क्योँ इक दिन वो रोया और कहता गया 
तुझ सा बेवफा मैंने आज तलक ना देखा |


v कहने को दिल में तमनाएं बेसुमार है
तुमसे मिलने को माँगी मन्नते हजार है
पर खुदा की रहमी तो देखो,
बनायीं ये बीच में हंसती सी दरार है |


v कल खुशियों से, हँसी ठहाकों से मेरी मुलाकात थी,
पर आज जैसे यथार्थ को भी धरातल सिमट गया हैं |

मैं मिर्ज़ा गालिब की शायरियों से बहुत प्रभावित रहा हूँ तो दो शायरियां गालिब के नाम :- 

v दुनियाँ गम--ईमान  का प्याला पीती है,
झूठी शोहरत और सिधांत का प्याला पीती है,
फिर आये कोई गालिब और बताएं,
क्या खा कर मरेगी ये दुनियाँ 


v कहता कोई गालिब कहाँ है जमाना
तोहमत हे नज़ारे पर कहाँ है फसाना
वक़्त तो ढलता सूरज ही रहा
फिर भी मुश्कियों में आबाद है आशियाना|