Monday, July 23, 2012

समय की रेत

कल रात बहुत तेज बारिश हुई थी। मकान कच्चे और फर्श नीचे होने के कारण पानी घुस आया था। एक ही चारपाई बस सही रह गयी थी वो भी उन्होने कभी-कभार आने वाले मेहमानों के नाम कर रखी थी। सीलन और टिप-टिप की आवाजों में नींद तो आँखों की पलकों को छु भी नहीं पाई थी। भोर होने को थी और मैं अधलेटी सी अपने बेटे प्रेम के बारे में सोच रही थी, "एक दिन जरुर बहुत बडा अफसर बनेगा मेरा बेटा..." ये भी बस करवटे ही बदल रहे थे वैसे दारू की इनकी आदत से कुछ तो चैन था, रात को दो घडी नींद तो आ जाती थी। बडी बेटी की शादी किये अभी कुछ बरस ही बीते थे और इनके पीने की आदत तो और भी बढ़ गयी जैसे घर में दिमाग लग गए हो, कोई चिंता ही नहीं रह गयी थी इनको, भूल गए थे की एक घर और भी संभालना है। एक दिन प्रेम इनसे लड़कर घर छोड़कर भाग गया और किस्मत की ही बात है की उस निकाले ने उसकी जिन्दगी में सफलता की ओर पहली सीठी सा काम किया। प्रेम अपनी बड़ी बहन गुड्डी के पास हनुमानगढ़ में ही चपरासी की नौकरी पर लग गया।

ये विचार भी बड़े अजीब होते है, ना सुख देखते है ना ही दुःख, बस आते ही जाते है और पुरानी यादें कुरेदते रहते है।

मेरे बाप के पास बाग़ हुआ करते थे, बडा आसन और आनंदमयी बच्चपन बिता मेरा। वो सब किया जो मेरे भाई किया करते थे, ठेरों सपने पाले, कपड़ो के, घोड़ियों के, तैराकी के, शिकार के और एक राजकुमार का सपना भी संजोया। फिर इनसे ब्याह के बाद जैसे खुली घोड़ी पर लगाम कस दी गयी और अस्तबल से निकाल किसी बस्ती के अँधेरे कोने में पटक दिया। इनकी आदतों और तीखे मिज़ाज़ों को सह-सहकर ना बोलने की जैसे आदत सी पड़ गयी थी तभी तो कृष्णा, मेरी सबसे बड़ी बेटी, की मौत का गम भी चुपचाप पी गयी।

काँव -काँव की कर्कस आवाज ने विचारों की इस लड़ी को तोडा और मुँह से अनायाश ही निकल पड़ा," मरजाने, आज कौन आने वाला है? जा उड जा यहाँ से, मेरे घर में मुझे कोई नहीं चाहिए।" अब वो तो चुप होने से रहा, आखिर थक हार कर लकड़ी ले उसे उड़ाया और पानी को मकानों से निकालने की जुगत लगाने लगी। अभी दिन का पहला पहर ही गुजरा था कि वो उठ खड़े हुए और रोटी पहुँचाने की बात कह खेतों को निकल दिए। दोपहर ढले खेतों से वापिस आते वक्त भैंस के लिए हरा-चारा भी लेते आई। अभी उघाड़ तक ही पहुंची थी कि सावित्री की आवाज आयी,"रामेश्वरी, तेरे घर बटाऊ आये बैठे है। करीब आधे घंटे पहले ही आये  थे।" मन तो वहीँ से उलटे-पैर भाग जाने को किया पर फिर प्रेम और गुड्डी का ख्याल आया," हो सकता है प्रेम की कोई खबर लाये हो और फिर भी बेटी के सुहाग को पीठ को तो लोग बुरा ही बताएँगे।"

घर जाने का रास्ता बदल जेठानी के घर को रुख किया। घर पे ना ही तो चीनी के दो दाने थे और ना ही चाय-पत्ती, एक कप चाय की मनुहार भी कैसे करती बटाऊ की? बड़ी मुश्किल से लाज मार कर एक कप चीनी और चाय-पत्ती उधार मांगी तो उदार हो जेठानी ने दो गाजर भी दे दी और बोली,"बटाऊ को साग कर देना।" मैं हरे चारे की गठरी में चाय-चीनी छिपाते हुए घर पहुंची और सीधे चारे को रशोई में डाला तो बटाऊ हँसते हुए बोल पडे,"माँ, ये जानवरों के खाने की चीज है इंसानों की नहीं!" भले ही उन्होंने मजाक किया था पर मेरे आँसु निकल पड़े। कैसे बताती की आजकल तो यहीं खाने की नौबत आन पड़ी है! घूँघट में अपने आंसुओं को छिपाए मैंने धीमी आवाज में पूछा,"बेटा, आप गाजर का साग खा लोगे ना?" और बटाऊ का नकारात्मक उत्तर सुन तो जैसे सीने पर पत्थर पड गया। समझ नहीं आया की अब कहाँ से लाऊं दूसरा साग, इसी उधेड़बुन में फटाफट एक कप चाय का बना, दोनों कमरे छान मारे। किस्मत अच्छी थी की कभी पुराने रखे दो आने मिल गए तो पड़ोस वाले अजय को भेज आलू मँगवा लिए और जब तक वो ले नहीं आया, दिल सिकुड़ता रहा और डर एवम लाज मन से उतरते नहीं बने। जल्दी से सब्जी-रोटी बना बटाऊ को दोपहरी करवाई तब जाके कहीं दिल को चैन मिला।

बड़ी मुश्किल से दो टुकड़े हलक से  उतारे होंगे की बटाऊ भीतर आ गए और कहने लगे,"लो माँ, आपके कमाऊ पूत ने 100 रूपये भिजवाये है और ये रंग-बिरंगी चमकती जूतियाँ!"

इतना सुनना था कि रोटी का टुकड़ा गले में ही अटका रह गया और हाथ की रोटी फर्श के नाम हो गयी। गले में खांसी और आँखों में आँसू। मन खुशी से झूम उढ़ा और हजारों आशीषें बेटे और बटाऊ के नाम कर दी।
फटाफट से जूतियाँ ली मानो खींच ली हो हाथों से और दुसरे कमरे के गारे लिपे फर्श पर महारानी बन चलने लगी। जूती की चर-मर भी एक आशातीत आजादी के आगाज सी लगी। ऐसे लगा जैसे इन जूतियों को पहन अपने बच्चपन के संजोये सपनो को जी लिया।

P.S. All characters are fictional.

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